ठिकाना, ठिया, चबूतरा, नुक्कड़, चौपाल, बैठक, आँगन - ये सब ऐसी जगहें हैं जो दोस्ती और रिश्तों के संबंधों को बनने व फलने-फूलने के मौके देती हैं. इंसान अगर यहाँ एक बार आ जाए और कुछ वक़्त  बिता ले तो  वो यहाँ से अपनी झोली में अनेकों कहानियां बाँट-बटोरकर  जाता है। 
ऐसी जगहों से जब हमारा रिश्ता गहरा हो जाता है तो ये जगहें हमारी ज़िंदगी में अहम् भूमिका निभाने लगती हैं. जिस किसी दिन हम वहाँ  नहीं जाते तो हमारा मन वहाँ  की यादों में सैर करता  रहता है. रोज़मर्रा  की ज़िन्दगी में वहां का हर एक लम्हा हमारी यादों का हिस्सा बनता चला जाता है. ऐसा ही एक चबूतरा था यशोदा जी के घर के सामने. वहां गली की हर महिला फ़ुरसत के कुछ वक़्त बिताती. उस चबूतरे पर बैठ वो अपने-अपने  घर-परिवार की खुशियों से लेकर दुःख भरी कहानियां सुनती-सुनाती. जो भी फेरी वाला आता, चाहे वो कपड़े वाला हो या चूड़ियों वाला या परदे बेचनेवाला - सभी का ठिकाना वहीं था. वहीं आकर वो अपनी चलती-फिरती दुकान सजा बैठता.
यशोदा जी की ऊंची आवाज़ पूरी गली में गूँजती रहती. "साड़ी वाला आया है" - ये आवाज़ जिन-जिन औरतों के कान में पड़ती वो काम छोड़ कर  चबूतरे के पास इकट्ठी हो जाती. धीरे-धीरे वहां का माहौल एकदम मार्केट के बड़े शोरूम में तब्दील हो जाता. फिर क्या था? मोल-भाव और सामान की खरीदारी शुरू हो जाती.
इस हुज़ूम में मैं कब शामिल हो गई पता ही नहीं चला. देखते-देखते मैं भी सभी की तरह  हर एक मौके पर वहां जा कर खड़ी हो जाती. मेरा रिश्ता सभी से इतना गहरा हो गया कि  हर सुबह आने के बाद उस टोली में शामिल हो जाती. आज वो चबूतरा खाली रहता है क्योंकि यशोदा जी घर बेचकर राजस्थान चली गई हैं. अब वहां वो माहौल नहीं रहा, पर उन रिश्तों की महक सभी के दिलों में आज भी जिंदा है. (शशि चौहान)
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वॉल ब्लॉग पढ़कर अच्छा लगा. "जगहें भरती हैं रिश्तों में रंग' पोस्ट में शशि चौहान ने दिल्ली जैसे व्यस्त महानगर में इंसानी रिश्तों को बचाए रखने वाली जगहों को खोजा है. बहुत-बहुत शुक्रिया.
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