Tuesday, July 21, 2009

ठिकानों के बगैर

ख्वाबों की हसीन दुनिया में हमेशा मेरा एक सपना रहा है कि काश मेरा खुद का एक ख़ास ठिकाना हो. कभी कोरे कागज़ पर कलम चलाकर तो कभी दोस्तों से बोल-बतियाकर मैं अक्सर उस ठिकाने की तस्वीर अपने जेहन में उकेरती रहती, जहां दोस्तों की महफ़िल भी हो, गपशप करने की आज़ादी भी और खेल-कूद के साथ-साथ राय-मशविरा करने का माहौल भी।

अपने और अपने दोस्तों के लिए हम ऐसे ठिकाने कहीं भी बना लेते हैं। फिर चाहे वो घर का चबूतरा हो, गली का नुक्क्कड़ या घर के आस-पास का कोई पार्क। अपनी उस जगह को खुद से सजाना, वहां रोज़ आकर दोस्तों से मिलना, कभी खेलना तो कभी कुछ नया सीखने के साथ हम हर रोज़ उस ठिकाने के और करी आते जाते हैं. ये वो जगह होती है जहां हम बेझिझक अपनी बात कहते हैं, लगभग हर रोज़ कई नए दोस्त बनाते हैं और सीखने-सिखाने का एक माहौल तैयार करते हैं. इसीलिए इसे हम 'अपना चबूतरा', 'अपना नुक्कड़', 'अपना पार्क' कहते हैं.


उस वक़्त मेरी उम्र कोई सात-आठ साल रही होगी, जब मुझे मेरी ये हसीन दुनिया मिली. आज भी मेरा उस जगह के साथ एक मज़बूत रिश्ता है. इसके साथ-साथ एक खूबसूरत माहौल मैं बस्ती में जगह-जगह देखती हूँ. कहीं किसी नुक्कड़ पर बोलती-बतियाती बच्चों की टोली तो कहीं चबूतरे पर गिट्टे उछालती या एक-दूसरे के साथ अपना हुनर बाँटती लड़कियाँ या फिर पार्क में किसी ख़ास मसले पर आपस में राय-मशविरा करता युवाओं का वो समूह - इन सबके लिए ये जगह उनकी ज़िन्दगी का ख़ास हिस्सा है.

बेशक बढ़ती उम्र और बदलती सोच के साथ ये जगहें एक नया रूप लेती रहती हैं पर बचपन तो जैसे इन ठिकानों के बगैर सूना है, और ये ठिकाने अपने इन नन्हे साथियों के बिना तन्हा. (टीना)

2 comments:

  1. शुक्रिया ओम आर्य साहब,
    दक्षिणपुरी बाल क्लब की हमारी प्यारी दोस्त टीना की पोस्ट 'ठिकानों के बगैर' की सोच आपको नाजुक लगी. आज की इस भागमभाग की ज़िन्दगी में पीछे छूट गए ऐसे ठिकानों की परवाह करनेवाले सख्स थोड़े तो नाज़ुकमिजाज़ होंगे ही साहब. और टीना जी तो वैसे भी अभी १३-१४ साल की बच्ची हैं.

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