Tuesday, July 21, 2009

सवालों की दुनिया

'सवाल' - एक ऐसा शब्द है जो हमें गहरे समंदर में डुबो देता है. कुछ जानने की इच्छा ज़ेहन में आई तो ढेरों सवाल जन्म ले लेते हैं. किताबों से सामना होता है तो भी सवाल ही सवाल सामने खड़े हो जाते हैं. किसी के विषय में जानकारी इकट्ठी करनी हो तो भी सवालों से ही शुरू होना पड़ता है. ज़िन्दगी सवालों की कश्मकश है. फ़िर हम क्यों भागते हैं सवालों की दुनिया से?

मेरा भी कुछ ऐसा ही अनुभव है. इस तरह के सवालों से दूर भागना एक डर बन गया. इस डर को दूर किए बिना कोई आगे नही बढ़ सकता. अगर कोई पार्क के रास्ते से आता-जाता तो हम उनसे कहते, "अंकल रुको!" वह पीछे देखते और कहते, "क्या है?" हम उनके सामने सवाल रखते. सवाल को सुनते ही वो बगलें झाँकने लगते. कोई कहता, "अभी टाइम नहीं है" तो कोई "बैट-बॉल खेलने के बाद जवाब दूंगा." किसी की जल्दबाजी भरे कदम उसे ये कहने के लिए बाध्य करता, "अभी काम पर जा रहा हूँ, बाद में!" हाथ में दूध के बर्तन लिए शख्स के मुँह से निकलता, "अभी दूध लाने जा रहा हूँ. उधर से लौटकर लिखूंगा." कोई मेरे सवालों के जवाब देने के डर से अपना रास्ता ही बदल लेता. पार्क में खेलते लड़के तो दीवार लांघकर ही भाग जाते.

अगर सवाल नही होते तो क्या होता? लोगों में जानने की इच्छा नहीं होती, पहचान नहीं होती और किसी चीज़ की जानकारी भी नहीं होती. मुझे भी हर रोज़ कुछ इसी तरह के सवालों से जूझना पड़ता है - स्कूल में टीचर से, घर में मम्मी पापा से, बाज़ार में लोगों से, गली में खेलने के लिए पड़ोसियों से। हर जगह, हर कहीं, हर किसे से सवाल ही सवाल! आख़िर हमें हर वक़्त सवालों का ही सामना क्यों करना पड़ता है? अब मुझे इस तरह के सवालों से लड़ना आ गया है. क्या आप के अंदर भी ये तजुर्बा है तो बयाँ कीजिए. (उत्तम)

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