Sunday, June 14, 2009

प्रेम गली अति सांकरो...

"अरे भइए काली गली कहाँ पड़ेगी?"

"क्या धोबियों की गली का पता मालूम है आपको?"

"ज़रा पार्क के सामने वाली गली बता दो भाई?"

दक्षिणपुरी की कई गलियाँ आज अपने इन्हीं नामों से मशहूर हैं. हर राहगीर की जुबां पर इन नामों की फेहरिस्त नज़र आती है, मानो ये पहचान सबके लिए बेहद ज़रूरी है. कहीं धोबियों का बसेरा हुआ तो वो धोबी वाली गली कहलाई तो कहीं मदिर या पार्क का निर्माण होते ही जैसे उस गली का भी नामकरण हो गया. इन्हीं कहानियों को टटोलने हुए जब कभी प्रेम गली का जिक्र होता है तो फ़िर एक नया-सा किस्सा सुनाई देता है!

बस्ती के खुले माहौल ने जब लोगों को खुलेआम एक-दूसरे से दोस्ती करने और बतियाने की इजाजत न दी और समाज ने बाँट दिया लड़कों और लड़कियों को तो उस गली ने न्यौता दिया अपने हमसफर बनने और दोस्ती के इस प्यारे रिश्ते को फलने-फूलने का. बेशक ये ठिकाना बस्ती में रहनेवाली कई शख्शियतों से परे है, लेकिन फ़िर भी कुछ जानकार लोग इसका पता जानते हैं.

जे ब्लाक की मार्केट में अखाड़े और जिम से सटी बिल्कुल सिकुड़ी सी गली जहां से अगर दो लोग एक साथ गुजरें तो तीसरे के लिए राह नज़र नहीं आती. जिम के युवा लड़कों की आवाजाही अक्सर इसी गली से होती है, पर आम लोगों की हाजिरी बहुत कम लगती है यहाँ. समाज के डर से जब चोरी छुपे शुरू हुई यहाँ मुलाकातें तो एक-दूसरे से जान-पहचान और दोस्ती का दायरा भी बढ़ने लगा.

अक्सर यहाँ हर उम्र के लोग फोन पर घंटों बातें करते नज़र आते हैं, पर ये रिश्ते हमेशा दोस्ती तक ही सीमित रह जाते हैं. जब लोगों की नज़रों से ये मंज़र और कानों में पड़ीं अफवाहें तो मानो मिल गई इस जगह को एक पहचान - प्रेम गली की. (टीना)

Saturday, June 6, 2009

मौके आप देंगे, खिल हम जाएंगे

खाली दीवारें! सुनसान जगह! उस पर लिखने का मेरा मन करता लेकिन हर पल ये डर सताता रहता - "कहीं मैडम ने देख लिया तो...?"

अपने मन की बातों को हम संजो नहीं पाते। मन में मचलते हज़ारों खयालात मुझे उस दीवार पर लिखने के लिए मजबूर कर देते। मैडम से नज़रें बचाकर कहीं मैं अपने दोस्तों का नाम उकेर देती या मन में उठ रहे किसी सवाल को लिख देती.

ये सब चोरी छिपे चलता. लेकिन खुल कर इन दीवारों से एक रिश्ता जताने की आज़ादी तो मानो अब भी कोसों दूर थी. इस रिश्ते को और पुख्ता करने की ललक लिए मैं अपने सकूल में उस शख्स को खोजती जो मेरी भावनाओं की क़द्र करे और न्योता दे मुझे इन दीवारों को संजोने का. लेकिन मेरे ज़ेहन में कभी ये ख़याल नहीं आया कि वो शख्स मेरे ही की स्कूल की प्रिंसिपल संगीता शील होंगी.

अक्सर एक डर लिए निगाहें उनसे टकराया करती. पर जब इस नई सोच के साथ उनसे रूबरू हुई तो एहसास हुआ उनके खुले विचारों का जिन्होंने खुले दिल से मुझे न्योता दिया अपने सकूल को सजाने का. फ़िर क्या था, मेरे सपनों को पंख लग गए और बना डाला स्कूल की उन दीवारों पर वो मंज़र जो एक अरसे से मेरे दिलोदिमाग पर छाया हुआ था.

उन दीवारों पर लिखी एक लाइन ने पूरे सकूल के टीचर और स्टाफ पर ऐसा जादू बिखेरा कि स्कूल के हर कोने में वही लाइन लिखी नज़र आने लगी. वो लाइन थी- "मौके आप देंगे, खिल हम जाएंगे." (टीना)