Saturday, June 6, 2009

मौके आप देंगे, खिल हम जाएंगे

खाली दीवारें! सुनसान जगह! उस पर लिखने का मेरा मन करता लेकिन हर पल ये डर सताता रहता - "कहीं मैडम ने देख लिया तो...?"

अपने मन की बातों को हम संजो नहीं पाते। मन में मचलते हज़ारों खयालात मुझे उस दीवार पर लिखने के लिए मजबूर कर देते। मैडम से नज़रें बचाकर कहीं मैं अपने दोस्तों का नाम उकेर देती या मन में उठ रहे किसी सवाल को लिख देती.

ये सब चोरी छिपे चलता. लेकिन खुल कर इन दीवारों से एक रिश्ता जताने की आज़ादी तो मानो अब भी कोसों दूर थी. इस रिश्ते को और पुख्ता करने की ललक लिए मैं अपने सकूल में उस शख्स को खोजती जो मेरी भावनाओं की क़द्र करे और न्योता दे मुझे इन दीवारों को संजोने का. लेकिन मेरे ज़ेहन में कभी ये ख़याल नहीं आया कि वो शख्स मेरे ही की स्कूल की प्रिंसिपल संगीता शील होंगी.

अक्सर एक डर लिए निगाहें उनसे टकराया करती. पर जब इस नई सोच के साथ उनसे रूबरू हुई तो एहसास हुआ उनके खुले विचारों का जिन्होंने खुले दिल से मुझे न्योता दिया अपने सकूल को सजाने का. फ़िर क्या था, मेरे सपनों को पंख लग गए और बना डाला स्कूल की उन दीवारों पर वो मंज़र जो एक अरसे से मेरे दिलोदिमाग पर छाया हुआ था.

उन दीवारों पर लिखी एक लाइन ने पूरे सकूल के टीचर और स्टाफ पर ऐसा जादू बिखेरा कि स्कूल के हर कोने में वही लाइन लिखी नज़र आने लगी. वो लाइन थी- "मौके आप देंगे, खिल हम जाएंगे." (टीना)

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